सोमवार, 5 दिसंबर 2011

ऐसा ‘समय’ कभी नहीं मिलेगा जो ‘सिर्फ तुम्हारा समय’ होगा


ऐसा ‘समय’ कभी नहीं मिलेगा जो ‘सिर्फ तुम्हारा समय’ होगा
पिछले तीस-पैंतीस वर्षों में साहित्य की गोष्ठियों में सचमुच में विषय के नवाचार का अकाल रहा है। मुझे याद नहीं पड़ता कि घुम फिर कर आप लगभग उन्हीं विषयों पर पिछले तीन-चार दशकों से विचार न कर रहे हो। आप अपने ‘समय’ पर विचार करते हैं तो उसकी आपके पास एक आऊट लाइंस है। आप राजनीति पर बात करेंगें, आप भाषा के संकट पर बात करेंगे। अब उसमें एक नई चिंता पिछले चार-पाँच वर्षों से खास तौर से ये हिन्दी का जो समाज है इसमें देख रहा हूँ उसमें बाजार आ गया है। आप राजनीति के साथ-साथ बाजार पर भी चर्चा करते हैं। क्या सचमुच में आपके लिए अपना समय जो है, क्या आपने यह तय नहीं कर लिया कि आपका समय तत्वत: एक ‘राजनीतिक समय है।’ अब आप ही यह तय नहीं कर रहे हैं कि आपका समय बहुत दूर तक एक ‘बाजारू समय है। क्या आप ही ये तय नहीं कर रहे हैं कि धर्म का जो वितंडावाद भारत और बाकी की दुनिया में पिछले एक-डेढ़ दशक में बहुत विकृत हो कर फूट पड़ा है। इसमें इसकी तात्विकता में आपने कुछ विचार किया है। पिछले डेढ़ दशक में आपकी चिंताओं को देखा जाना चाहिए और मैं ये साहब आपके सामने इसलिए कह रहा हूँ कि मैं साहित्य के संसार का आदमी नहीं हूँ। मैं साहित्य के लिए बहुत दूर का आदमी हूँ। मुझे आपके साहित्य की समकालीनता से कोई लेना देना नहीं है। मैं उसके लिए एक पराई चीज हूं । थोड़ा दूर रहकर साहित्य की दुनिया को देखता रहता हूँ। साहित्य की दुनिया क्या सोचती है? सोचने वालों की दुनिया है। विचार करना चाहिए कि वह सोचती क्या है? आज आपने खास तौर से, पंत जी ने, विषय-प्रवर्तन करते हुये आऊट लाइंस दी हैं मैं अपने को उन्हीं की सीमा में रहते हुये उसके भीतर तीन चीजों को अपने समय को देखने की जो दृष्टि है, वहाँ केन्द्रित करता हूँ। मेरा ऐसा मानना है काल को लेकर एक लम्बा चिंतन भारत में रहा है। मैं देश भर में बहुत सारी जगहों पर जाता हूँ और मैं कहता हूँ कि पिछले दो सौ वर्षों में जो समय की चेतना, समय की गणना का जो बोध भारत में प्रवेश किया है इसने भारत को अपने समय से उखाड़ डाला है। जो इतिहास का समय है तत्वत: वह एक ‘भौतिक समय’ है और ‘इतिहास के समय’ में तुम्हें अपनी ‘परम्परा के समय’ से, जिसमें सिर्फ इतिहास का भौतिक समय ही नहीं बहुत सारे समय शामिल थे उसे उखाड़ दिया। जब तुम साहित्य में और साधना में कुद काम करते हो तो बहुत अड़चन होती है, क्योंकि तुम्हारी स्मृति में एक ऐसा समय भी है जो इतिहास के बाहर भी है। तुम्हारी स्मृति में एक ऐसा समय भी है जो तुम्हारे इतिहास में सहत्राब्दियाँ तय करता हुआ तुम तक प्रवेश करता है। मैं ऐसे किसी समय को नहीं जानता जो केवल ‘हमारा समय’ है। अनेक-अनेक सदियां हमारे समय तक आती हैं और बहुत सारा आगत अपनी कल्पना, अपनी आशा प्रत्याशा में हमारे भीतर प्रतीक्षारत होता है। अब भारत का, समय की उस समग्रता से कुछ लेना-देना बचा नहीं है। भारत रोज-रोज इतिहास के उस समय से राजी है जो समय निपट आपका, आप उस समय को दर्ज कर लेते हैं। मैं इस बात को बहुत अच्छे से जानता हूँ कि बहुत सारा समय जो है भारत ने जिया है लेकिन दर्ज नहीं किया है और जो समय दर्ज होने से बाहर हो गया है वह समय तो काल्पनिक है। वो भरोसे का समय नही बचा है, उसमें जो कुछ भी जीवन था, जो जाना गया था वो अब कपोल कल्पना है और पश्चिम में ईसा के इन 2000 वर्षों के दर्ज समय को लगभग पृथ्वी के कुल समय में बदलने का हट किया। उसको दुनिया भर के समय में बदल डाला। मैं प्रस्ताव करता हूँ कि थोड़ा सा अपने समय की खोज करो। दूसरों के समय और दूसरों की शर्तों पर जीने और सोचने से तुम्हें अपनी समस्याओं के हल कभी नहीं मिलते, तुम्हें अपनी दृष्टि नहीं मिलेगी, तुम्हें अपनी समय की निरंतरता भी नहीं मिलेगी।
मैं कहता हूँ समय एक निरंतरता है। ऐसा समय तुम्हें कभी नहीं मिलने वाला जो ‘सिर्फ तुम्हारा समय’ होगा। तुम तक आने वाले बहुत सारे समय में बहुत सारे लोगों का समय, बहुत सारी सदियां, और सारा सत्य तुम तक आयेगा जिसको तुमने अर्जित नहीं किया है। तुम भी जो अर्जित करोगे अपने समय में, समय की सनातनता को सौंप जाओगे, लेकिन ऐसा कोई समय खोजने में हमेशा असफल रहोगे, तुम्हारा और केवल तुम्हारा और केवल तुम्हारा समय। ये एक बात है जो मैं देश भर में लोगों से कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि ये इतिहास के समय के बाहर आकर समय को उसकी समग्रता में और भारतीय परम्परा के भीतर देखने का कष्ट कीजिए। ऐसा करके मैं किसी तरह से आपको अनावश्यक रूप से परम्परा में घसीटना नहीं चाहता। अगर परंपरा से आपको सचमुच में इतनी घृणा हो गई है, आपको लगता है कि परम्परा एक अतीत की गई गुजरी चीज होती है तो फिर कोई आवश्यकता नहीं उसको खोजने की। फिर आप अपनी समकालीनता में मग्न रह सकते हैं, और रहिए। लेकिन, तब आपके हाथ में सचमुच में समय का सत्य नहीं होगा। ये एक बात है।
ये धरती के समय में बदल दिये गये ईसा के 2000 वर्ष जो हैं इसका थोड़ा प्रतिरोध करिए, थोड़ा हिम्मत जुटाइये। आप खड़े होइये और कहिए कि हम एक ऐसा समय भी जानते हैं जो आपको कपोल कल्पना लग सकता है, हमारे लिये। आप कहिए कि जिस समय को तुम प्रामाणिक मानते हो उसको पूरी दुनिया प्रामाणिक माने यह हट आप छोड़ दीजिए क्योंकि हम ऐसे समय को भी जानते हैं जो 2000 वर्षों के पहले भी था। रचना थी, जीवन था, सत्य खोजा गया। इतना बड़ा कि उतने बड़े सत्य की खोज धरती पर पिछले 2000 वर्षों में दोहराई नहीं गई। मुझे जरा बताइये। इस दुनिया में दो लोगों ने अपने दम से दो महान शास्त्रों को स्वयं जन्म दिया। परम्परा सामान्यत: पूरे विज्ञान को खड़ा करती है। उनमें एक आदमी पश्चिम में हुआ-अरस्तु। जिसने तर्क का एक शास्त्र अपनी मेधा से, अपनी प्रतिभा से, अपनी क्षमता से अकेले ही खड़ा कर दिया। वह एक परंपरा ने खड़ा नहीं किया और भारत में आज से पांच हजार साल पहले पतजंलि नाम का एक व्यक्ति हुआ था जिसने अकेले अपनी क्षमता, अपनी साधना से एक महान विज्ञान को जन्म दिया अकेले ही। वह था योग का पूरा दर्शन, योग का पूरा शास्त्र। तीसरा व्यक्ति इस संसार में नहीं हुआ जिसने अकेले अपनी क्षमता से एक विज्ञान को खड़ा कर दिया हो और उसमें एक भी शब्द जोडऩे की गुंजाइश न रहे। आप अपनी परम्परा के शब्द और उसके शब्द के पीदे जो सत्य है उसकी आँच को, उसकी अग्नि को, जांचने के लिए बार-बार मध्यकालीन भक्ति काव्य की तरफ जाते हैं। मैं जानता हूँ आप सूर की तरफ जाते हैं, आप कबीर की तरफ जाते हैं, आप तुलसी की तरफ जाते हैं, मीरा की तरफ जाते हैं। मैं केवल आपसे इतना निवेदन करना चाहता हूँ क्या सचमुच में ये जो महान सर्जना है ये केवल भाषिक सर्जना है। अपने समय में कबीर को कोई सिर्फ कवि कहता तो भी कितना शर्मिंदा हो जाते। क्या सचमुच में तुलसी केवल एक प्रबंधकार हैं? क्या सचमुच में सूरदास जो हैं उनका वैष्णव साधना से कोई लेना-देना नहीं था? वे केवल एक कवि थे, उन अर्थों में जिन अर्थों में आप लोग अपने को कवि कहते हैं। मेरा निवेदन है कि दरअसल ये पहले साधक थे, पहले सन्त थे, उनमें, अपनी साधना में जाना, उनके लिए कविता ही थी, संगीत ही था। क्या खोजा है आपने? कविता खोजी, संगीत खोजा? इसके बाद चुप हो जाते हैं। रोने लगते हैं। कोई तीसरी बड़ी चीज तुमने खोजी नहीं है। ऐसे लोग जो सत्य में उत्सुक थे और जो ये जानते थे कि क्या दुनिया के बदलने का अहंकार करें, अपने को बदल लें, बहुत बड़ी बात है। अपने को बदलना और अपने को जानना और फिर संसार भी जान लेंगे। हो सका जितना संभव होगा संसार बदल जायेगा।
आज संसार बदलने का सारा दावा वे लोग कर रहे हैं जो अपने तक को बदलने के लिए राजी नहीं है और मैं हैरत हूँ। जो अपने को बदलने को राजी नहीं वे एक मात्र प्रति साहित्य और विचार ये जानते हैं कि उन पर इतना बड़ा कार्य भार आ गया कि दुनिया को बदल देना चाहिए। कहानी लिखकर बदल देना चाहिए। कविता लिखकर बदल देना चाहिए। उपन्यास या नाटक लिखकर बदल देना चाहिए। एक वजनदार किस्म का लेख लिखकर दुलिया बदल देना चाहिए। दुनिया के अपने चलने के नियम हैं। दुनिया तुम्हारी संवेदना ही प्रमीक्षा में बदलने के लिए रुकी नहीं है। वह बदलेगी। वह क्षण-क्षण बदल रही है। अपने चलने से बदलती है। उसकी चाल को देखने की आँख आपके पास होनी चाहिए। आप यह अहंकार छोड़ दें कि जब तक आप कुछ रचोंगे नहीं दुनिया बदलेगी नहीं। हाँ मनोविश्व भी बदलता है। आप ये कहेंगे कि दुनिया तो नहीं बदलती आदमी की चेतना, आदमी का बोध, आदमी का विचार और मनुष्य की संवेदना रचना से जरूर बदलती है। मैं ये कह रहा हूँ कि जीव का रोज-रोज बदलता हुआ सत्य अगर तुम्हें संवेदित नहीं करता वह तुम्हें बदलता ही नहीं तो ये दावा भी बहुत संदिग्ध है कि तुम्हारे बोध को, तुम्हारी चेतना को रचना बदल देगी। ये नहीं हो सकता, इस पर मुझे संदेह है। मैं आपके सामने निवेदन करता हूँ कि अपने समय का बहुत ज्यादा दावा मत करिये। समय की समग्रता की बात करिए और पश्चिम का जो ये ऐतिहासिक समय है जिसने एक प्रामाणिक किये हुये समय के रूप में भारी अहंकार किया है और 2000 वर्षों के समय को पृथ्वी के समय में बदलने की चेष्टा की हो। इसका प्रतिरोध कीजिए।
आप पूरी दुनिया को ये बताइये कि हम 2000 वर्षों के पहले के भी एक समय को जानते हैं। हम तक वह समय बहते आया है। वह हमारे रक्त में दौड़ता है हमारी चेतना, हमारी सर्जना हमारे सौन्दर्य बोध और हमारे सय को जानने की जिज्ञासा का हिस्सा है। वह दर्ज नहीं है कागज में। वह दर्ज है हमारी स्मृति में, हमारी संस्कृति में, हमारे रक्त में। मुझे बहुत टूटा हारा और पराजित, अपने ही स्वार्थों में बंद और एक ईकाई की तरह, लगभग दु:ख में घिर गये आदमी की तरह लगता है ये। वह एकात्मचेतस स्वतंत्रता का सम्मान करने वाला, चुनाव करने वाला। प्रत्येक क्षेत्र में जीवन का चुनाव करने वाला एक गरिमावान व्यक्ति कहीं नहीं है। न ही समाज है न ही व्यक्ति है। शीतयुद्घ की लड़ाइयां लड़ रहे हैं-साहित्य में, और विचार में। और, आप कहते हैं कि आप कोई नवाचार करना चाहते हैं। आप जरा विचार तो करें कि अगर आत्मचेतनस व्यक्ति विदा हो गया है तो उसकी जगह किस चीज ने भर दी? क्या खालीपान पैदा हो गया आदमी के भीतर? और अगर सामुदायिक रूप से विन्यरत समाज टूट गया है तो ये कौन से मनुष्यों की भीड़ है जिसका सामना हम कर रहे हैं? इसकी क्या अपेक्षाएं? इसके लिए क्या किया जा सकता है? क्या इसका अपना मत है? क्या ये स्वतंत्रता का सम्मान करता है?
विज्ञान और तकनीकी की बात की-मैं आपको यह बताना चाहता हूँ कि मनुष्य ने अपनी प्रतिभा और सृजन का सारा प्रतिदान साहित्य के लिए ही नहीं कर दिया है, वे जीवन के हजारों क्षेत्र हैं जिनकी हम कभी चर्चा तक नहीं करते। क्या हमारी श्रेष्ठतम प्रतिभा विज्ञान में नहीं होती है? क्या हमारी श्रेष्ठतम प्रतिभा तकनीक में नहीं होती है। आप उनके अवदान को भी एक तरह की सर्जना कहिए। इतना अपमान मत करिए उनका कि वे साहित्य नहीं जानते, तो कुछ रचा नहीं। वे सर्वश्रेष्ठ रचते हैं हमारे समय के लिए और उनको रचते हुये का 60 प्रतिशत से ज्यादा जो ये दुष्ट राष्ट्र जो हैं इन लोगों ने हथियारों में उसको लगा रखा है। आपको इसको लेकर कोई चिन्ता नहीं होती कि श्रेष्ठतम मानवीय सर्जन का 60 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा मनुष्य को मारा कैसे जाय इसके लिए सक्रिय हैं। इसको स्वयं विषय बनाइये कि जो श्रेष्ठतम प्रतिभा खोजेगी वह सारे समाज का होगा और जीवन के पक्ष में होगा, वह मृत्यु के पक्ष में नहीं हो सकता। मृत्यु के पक्ष में हमारी श्रेष्ठतम सर्जना जो है राष्ट्रों राज्यों की दुष्टता में लगा दी है इसका प्रतिरोध करिये क्योंकि ऐसा आपने नहीं किया तो बहुत भयानक समय आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। आप सिर्फ इस पर चिन्तित कम होइये कि भाषा की शक्ति रोज-रोज समाज में कम हो रही है और भाषा का क्या होगा? अस्तित्व का क्या होगा? इस तरह सोचिए। पहले अस्तित्व होता है। भाषा अस्तित्व के पहले नहीं आ जाती हक्। आपके सारे साहित्यिक मंच जो है क्या चर्चा कर रहे हैं? उनके विषय क्या हैं? थोड़ा सा पुनर्विचार करिए। मैं आपसे निवेदन कर रहा हूँ, कि तकनीक और विज्ञान की आधी शक्ति हमारे देखते-देखते वैश्वीकरण ने, पूंजी ने राष्ट्र के हाथ से अपने हाथ में छीन ली। आज तो अपने मुनाफे के लिए बाजारों पर कब्जा कर रहा है। वो प्रतीक्षा नहीं कर रहा है कि आप बाजार आयेंगे। दरअसल वह आपके घर में घुस गया। बाजार आपके घर में घुस गया है पूरी बेशर्मी के साथ। और राष्ट्र राज्य के हाथ में ये सर्वश्रेष्ठ सर्जना है उसको इस मार्ग की तरफ मोड़ दिया गया है। उसकी आधी ताकत बाजार ने अपने हाथ में कर ली है। वह आज के मुनाफे के लिए कर रहा है। कल बम प्राइवेट कंपनियां बनायेगी। ब्लस्टर बम बनायेगी, बहुत सारी चीजें हैं। कभी न्यूक्लीयर पावर क्रियेट करने लगे। उनके और राज्य के बीच में एक समझौता बस दुनिया में होने को है कि जो बंटवारा है वह बाजार और राष्ट्र के बीच में हो जा और तब आप बहुत निहत्थे आदमी होंगे। आपका जीवन लगभग बंधकों का जीवन होगा। अगर आपने ठीक तरह से इसका प्रतिरोध नहीं किया। आप वैज्ञानिकों से कहिए कि आप विचार विमर्श करिए कि आप लगभग विक्षिप्त लोगों के हाथ में सर्जना का, अपनी खोज का और जो कुछ भी बेचने से आपकी आत्मा रोकती है वह मनुष्य के विरोध में इस्तेमाल हो रहा है। आप ऐसा मत करिए। आप ऐसा करने में इंकार कर दीजिए और अगर आपने आपके समय की वैज्ञानिक प्रतिभा को यह नहीं बताया तो बहुत भयानक समय आपको घेरे हुए है। केवल कहानी लिखना, कविता लिखना, नाटक लिखना, चित्र बनाना, निबंध लिखना ये बहुत अच्छी बातांझ हो जायेगी अगर ये नहीं होता। लेकिन, कुछ दायित्व ऐसे आ गये हं जो उसके पहले ह क्योंकि हर सर्जना के पहले अस्तित्व होता है और सवाल अस्तित्व का है मैं ये कह रहा हूँ कि ये ऐसा समय है कि जिसमें समाज भी टूट गया है और जिसमें व्यक्ति खण्डित हो गया है। अब इस पुरानी पदावली में आप विचार करना बंद करिए कि मैं तो साहित्य के एक ऐसे गुट से जुड़ा हुआ हूँ जो सामाजिक चेतना के लिए चिन्तित हैं, जो समाज के लिए चिन्ति हो। कौन सा समाज? खोजिए यह कैसा समाज होगा और बहुत अहंकार मत कीजिए, समाजवाद की धूल, यथार्थवादी रचनाएं करने वाले लोग हैं जो ऐतिहासिक द्वंद्ववाद है, पर विचार करते रहते हैं हमारा उनसे कोई लेना देना नहीं है हम तो आत्मचेतस च्यक्ति की बात करते हैं। कौन सा व्यक्ति? कोई आत्मचेतना नहीं बची व्यक्ति में, वह टूट की है। आप पुरानी पदावली में विचार कर रहे हैं आज शीत युद्घ के समय का वैचारिक युद्घ साहित्य में अभी भी लड़े चले जा रहे हैं। जो हारा जा चुका हो, कृपया नये सिरे से विचार करें।
डॉ. कपिल तिवारी

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