सोमवार, 28 जनवरी 2013

वन भूमि का मालिकाना हक दिया जाना पर्यावरण के लिए घातक

 
पन्ना, 28 जनवरी 2013। वोट की राजनीति के चलते प्राय: होता आया है कि हरिजन या आदिवासी, जो वन भूमि पर काबिज हैं, उनकी उसी भूमि के पट्टे दे दिये जाते हैं फिर उसी की आड़ में वनों का विनाश शुरू हो जाता है। कुल मिलाकर किसी भी दृष्टि से वनभूमि का मालिकाना हक किसी भी वर्ग को पर्यावरण की दृष्टिï से मालिकाना हक दिया जाना उचित नहीं। तमाम राजनैतिक दल इस पक्ष में है कि आदिवासियों को वन भूमि पर मालिकाना हक दिया जाना चाहिये यह न सिर्फ आदिवासी हितों अपितु मानवता के खिलाफ बात होगी। कोई भी स्थापित की हुई गलत परम्परा, भविष्य के समाज के लिये एक गलत नजर बनी सकती है। वन भूमि पर किसी भी समाज का मालिकाना हक भविष्य के खतरे की ओर संकेत करता है। सभी राजनैतिक दलों बुद्घिजीवियों समाजसेवियों पर्यावरणविदों एवं मीडिया को खुले मन से इसकी अच्छाईयों एवं बुराईयों पर विचार करना चाहिये। वन भूमि पर आदिवासियों के मालिकाना हक के लिये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पूर्व में एक विधेयक लाने की मंजूरी दी थी तब आदिवासी मंत्रालय की ओर से तैयार विधेयक पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने अपनी आपित्त प्रस्तुत की थीं। शीत कालीन अधिवेशन के शुरूआत से पूर्व आम सहमति बनाने के लिये प्रयास किये जा रहे हैं। जनसंख्या दर में नजर डालें तो अन्य जातियों की भांति आदिवासी समाज की निरंतर बढऩे से आबादी के पोषण के लिये कृषि योग्य भूमि की मांग में काफी वृद्घि हो रही है। परिणाम स्वरूप आदिवासी समाज भूमि उपलब्ध के लिये वनों की ओर बढ़ रहा है तथा कृषि कार्य के लिये वन भूमि नष्टï की जा रही है। कृषि भूमि में वृद्घि वन भूमि में कमी, वृक्षारोपण कार्यक्रम पर पर्याप्त ध्यान न दिये जाने तथा जनसंख्या विस्फोट के परिणाम पर्यावरण पर देखने को मिल रहे हैं। वायुमंडल में कार्बनडाईआक्साईड की मात्रा में वृद्घि ओजोन छिद्र के आकार में बढ़ोत्तरी, हिम ग्लैशियरों का निरंतर सिकुडऩा ऋतु चक्र में बदलाव समुद्र के जल स्तर में वृद्घि मानव जीवन के अतिरिक्त समस्त पृथ्वी के लिये अच्छे संकेत नहीं है।



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