मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011
मां नर्मदा सामाजिक कुंभ को लेकर ईसाई समुदाय में भय
मां नर्मदा सामाजिक कुंभ को लेकर ईसाई समुदाय में भय
मध्यप्रदेश के ईसाई समुदाय एक बार फिर आशंकित है। ये आशंकाएं जायज हैं या नाजायज यह तो नहीं कहा जा सकता किंतु ईसाई संगठनों के नेताओं ने पिछले दिनों प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह से मिलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा 10,11,12 फरवरी को मंडला में आयोजित किए जा रहे मां नर्मदा सामाजिक कुंभ को लेकर अपनी आशंकाएं जतायी हैं। इस आयोजन में लगभग 20 लाख लोगों के शामिल होने की संभावना है। इसके चलते ही वहां के ईसाई समुदाय में भय व्याप्त है। मंडला वह इलाका है जहां बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ है, ईसाई संगठनों को आशंका है इस आयोजन के बहाने संघ परिवार के लोग उनके लोगों को आतंकित कर सकते हैं, या उन्हें पुनः स्वधर्म में वापसी के लिए दबाव बना सकते हैं।जाहिर तौर इससे इस क्षेत्र में एक सामाजिक तनाव फैलने का खतरा जरूर है।
यह भी सवाल काबिलेगौर है कि आखिर इस कुंभ के लिए मंडला का चयन क्यों किया गया। इसके उत्तर बहुत साफ हैं एक तो मंडला आदिवासी बहुल जिला है और इस इलाके धर्मांतरित लोगों की संख्या बहुत है। किंतु ईसाई संगठनों की चिंताओं को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। संघ परिवार ने इस आयोजन के ताकत झोंक दी है किंतु इतने बड़े आयोजन में जहां लगभग २० लाख लोगों के आने की संभावना है आदिवासी समाज के वास्तविक सवालों को संबोधित क्यों नहीं किया जा रहा है, यह एक बड़ा सवाल है। आदिवासियों की जिंदगी का मूल प्रश्न है आज उनकी जमीनों,जंगलों और जड़ों से उनका विस्थापन। इसी के साथ नक्सलवाद की आसुरी समस्या समस्या उनके सामने खड़ी है। इस बाजारवादी समय में अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे इस समाज के मूल प्रश्नों सें हटकर आखिर धर्मांतरण जैसे सवालों से हम क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या ही बेहतर होता कि संघ परिवार इस महाआयोजन के बहाने माओवादी आतंकवाद के खिलाफ एक संकल्प पारित करता और जल, जंगल,जमीन से आदिवासियों की बेदखली के खिलाफ कुछ सार्थक फैसले लेते। किंतु लगता है कि धर्मांतरण जैसे सवालों को उठाने में उसे कुछ ज्यादा ही आनंद आता है।
धर्मान्तरण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार की कुछ उन प्राथमिक चिंताओं में है जो उसके प्रमुख एजेंडे पर है। यह दुख कहीं-कहीं हिंसक रूप भी ले लेता है, तो कहीं गिरिजनों और आदिवासियों के बीच जाकर काम करने की प्रेरणा का आधार भी देता है। आज ईसाई मिशनरियों की तरह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रेरित वनवासी कल्याण आश्रम और सेवाभारती जैसे संगठनों के कार्यकर्ता आपको आदिवासियों, गिरिजनों एवं वंचितों के बीच कार्य करते दिख जाएंगे ।बात सिर्फ सेवा को लेकर लगी होड़ की होती तो शायद इस पूरे चित्र हिंसा को जगह नहीं मिलती । लेकिन ‘धर्म’ बदलने का जुनून और अपने धर्म बंधुओं की तादाद बढ़ाने की होड़ ने ‘सेवा’ के इन सारे उपक्रमों की व्यर्थता साबित कर दी है। हालांकि ईसाई मिशनों से जुड़े लोग इस बात से इनकार करते हैं कि उनकी सेवाभावना के साथ जबरिया धर्मान्तरण का लोभ भी जुड़ा है। किंतु विहिप और संघ परिवार इनके तर्कों को खारिज करता है। आज धर्मान्तरण की यह बहस ऐसे मोड़ पर पहुंच चुकी है, जहां सिर्फ तलवारें भांजी जा रही हैं। और तर्क तथा शब्द अपना महत्व खो चुके हैं। जिन राज्यों में व्यापक पैमाने पर धर्मान्तरण हुआ है मसलन मिजोरम, अरुणाचल, मेंघालय, नागालैंड के ताजा हालात तथा कश्मीर में मुस्लिम बहुसंख्या के नाते उत्पन्न परिस्थितियों ने हिंदू संगठनों को इन बातों के लिए आधार मौजूद कराया है कि धर्म के साथ राष्ट्रांतरण की भी परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं। जाहिर है यह भयग्रंथि ‘हिंदू मानस’ में एक भय का वातारण बनाती है। इन निष्कर्षों की स्वीवकार्यता का फलितार्थ हम उड़ीसा की ‘दारा सिंह परिघटना’ के रूप में देख चुके हैं। दारा सिंह इसी हिंदूवादी प्रतिवादी प्रतिक्रिया का चरम है।
धर्मान्तरण की यह प्रक्रिया और इसके पूर्वापर पर नजर डालें तो इतिहास के तमाम महापुरुषों ने अपना धर्म बदला था। उस समय लोग अपनी कुछ मान्यताओं, आस्थाओं और मानदंडों के चलते धर्म परिवर्तन किया करते थे। वे किसी धर्म की शरण में जाते थे या किसी नए पंथ या धर्म की स्थापना करते थे। लंबे विमर्शों, बहसों और चिंतन के बाद यथास्थिति को तोड़ने की अनुगूंज इन कदमों में दिखती थी। गौतम बुद्ध, महावीर द्वारा नए मार्गों की तलाश इसी कोशिश का हिस्सा था वहा भी एक विद्रोह था। बाद में यह हस्तक्षेप हमें आर्य समाज, ब्रह्मा समाज, रामकृष्ण मिशन जैसे आंदोलनों में दिखता है। धर्म के परंपरागत ढांचे को तोड़कर कुछ नया जोड़ने और रचने की प्रक्रिया इससे जन्म लेती थी। कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक का बौद्ध धर्म स्वीकारना, एक लालच या राजनीति से उपजा फैसला नहीं था। यह एक व्यक्ति के हृदय और धर्म परिवर्तन की घटना है, उसके द्वारा की गई हिंसा के ग्लानि से उपजा फैसला है। बाद के दिनों में बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर का बौद्ध धर्म स्वीकारना एक लंबी विचार-प्रक्रिया से उपजा फैसला था। इसी प्रकार केशवचंद्र सेन भी ईसाई धर्म में शामिल हो गए थे। उदाहरण इस बात के भी मिलते हैं कि शुरुआती दौर के कई ईसाई धर्म प्रचारक ब्रह्माण पुजारी बन गए। कुछ पादरी ब्राह्मण पुजारियों की तरह कहने लगे । इस तरह भारतीय समाज में धर्मातरण का यह लंबा दौर विचारों के बदलाव के कारण होता रहा । सो यह टकराव का कारण नहीं बना । लेकिन सन 1981 में मीनाक्षीपुरम में 300 दलितों द्वारा हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम ग्रहण करने की घटना ने एक बड़ा रूप ले लिए । सामंतों और बड़ी जातियों के अत्याचार से संतप्त जनों की इस प्रतिक्रिया ने कथित हिंदूवादियों के कान खड़े कर दिए। सही अर्थों में मीनाक्षीपुरम की घटना आजाद भारत में धर्मान्तरण की बहस को एक नया रूप देने में सफल रही । इसने न सिर्फ हमारी सड़ांध मारती जाति-व्यवस्था के खिलाफ रोष को अभिव्यक्त दी वरन हिंदू संगठनों के सामने यह चुनौती दी कि यदि धार्मिक-जातीय कट्टरता के माहौल को कम न किया गया तो ऐसे विद्रोह स्थान-स्थान पर खड़े हो सकते हैं। इसी समय के आसपास महाराष्ट्र में करीब 3 लाख दलितों ने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया । 26 जनवरी 1999 को तेजीपुर (उ.प्र.) में कई दलित काश्तकारों ने बौद्ध धर्म अपना लिया । लेकिन इन घटनाओं को इसलिए संघ परिवार ने इतना तूल नहीं दिया, क्योंकि वे बौद्धों को अलग नहीं मानते । लेकिन मिशनरियों द्वारा किए जा रहे धर्मान्तरण की कुछेक घटनाओं ने उन्हें चौकस कर दिया । संघ परिवार ने धर्म बदल चुके आदिवासियों को वापस स्वधर्म में लाने की मुहिम शुरू की, जिसमें दिलीप सिंह जूदेव जैसे नेता आगे आए।
इस सबके साथ ईसाई मिशनों की तरह संघ परिवार ने भी सेवा के काम शुरू किए। इससे बिहार के झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, गुजरात, महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों में जमीनी संघर्ष की घटनाएं बढ़ी । जिसकी परिणति कई प्रदेशों में हिंसक संघर्ष रूप में सामने आई । कुछ समय पहले इसका इस्तेमाल कर पाक प्रेरित आतंकियों ने भी हिंदू-ईसाई वैमनस्य फैलाने के लिए चर्चों में विस्फोट कराए थे। इन तत्वों की पहचान दीनदार अंजमुन के कार्यकर्ताओं के रूप में हो चुकी है। पूर्वाचल के राज्यों में आईएसआई प्रेरित आतंकियों से चर्च के रिश्ते भी प्रकाश में आए हैं। ऐसे एकाध उदाहरण भी देश के सद्भाव व सह अस्तित्व की विरासत को चोट पहुंचाने के लिए काफी होते हैं। जाहिर है ऐसे संवेदनशील प्रश्नों पर नारेबाजियों के बजाए ठंडे दिमाग से काम लेना चाहिए। लेकिन भारत जैसे विशाल देश में जहां साक्षरता के हालात बदतर हैं, लोग भावनात्मक नारों के प्रभाव में आसानी से आ जाते हैं। जरूरत इस बात की है कि हिंदू समाज धर्मान्तरण के कारकों एवं कारणों का हल स्वयं में ही खोजे। धर्म परिवर्तन प्रत्येक व्यक्ति का बुनियादी हक है। कोई भी व्यक्ति का यह हक उससे ले नहीं सकता, लेकिन इस प्रश्न से पीड़ित जनों को चाहिए कि वे लड़ाई हिंदू समाज में पसरी अमानवीय जाति प्रथा और पाखंडपूर्ण बहुरूपिएपन के खिलाफ शुरू करें। समाज को जोड़ने, उसमें समरसता घोलने का दायित्व बहुसंख्यक समाज और उसके नेतृत्व का दावा करने वालों पर है। सामाजिक विषमता के दानव के खिलाफ यह जंग जितनी तेज होती जाएगी। धर्मान्तरण जैसे प्रश्न जिनके मूल में अपमान ,तिरस्कार, उपेक्षा और शोषण है, स्वतः समाप्त करने के बजाए वंचितों के दुख-दर्द से भी वास्ता जोड़ना जाहिए। इस सवाल पर बहुसंख्यक समाज को सकारात्मक रुख अपनाकर बतौर चुनौती इसे स्वीकारना भी चाहिए। जाहिर है इस लड़ाई को दारा सिंह के तरीके से नहीं जीता जा सकता । इसके दो ही मंत्र हैं सेवा और सद्भाव। २० लाख लोगों को मंडला में जुटाकर आरएसएस अगर आदिवासियों के मूल सवालों पर बात नहीं करता तो अकेले धर्मांतरण का सवाल इस कुंभ को सार्थक तो नहीं बनाएगा।
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