बुधवार, 12 जनवरी 2011
ईशनिंदा (पैगम्बर मुहम्मद या इसलाम के बारे में अपमानजनक टिप्पणी) करने पर इसलाम में मौत की सजा का फ़रमान दिया गया है, गलत है और यह कानून भी इसलाम के खिल
हत्या के अलावा किसी भी तरह के अपराध के लिए इसलाम में कहीं भी मौत या मौत जैसी सजा मुकर्रर नहीं है.
*मौत या मौत जैसी सजा मुकर्रर करनेवाले मुल्क की सरकार को चाहिए कि पहले वो इसलाम को समझने की कोशिश करे.
*लोगों में एक धारणा बन गयी है कि कुर्आन एक फ़रमान जारी करनेवाली किताब है. यह बहुत ही गलत धारणा है.
पैगम्बर मुहम्मद साहब के बारे में या इसलाम के बारे में कोई किसी भी तरह की टिप्पणी करता है, तो यह उसकी निजी सोच का मामला है. इसके लिए उस पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. ऐसे घृणित काम के लिए उसे सजा या माफ़ी सिर्फ़ अल्लाह ही दे सकता है, इंसान नहीं.
पाकिस्तान एक लोकतांत्रिक मुल्क जरूर है, लेकिन उसकी कुछ राजनैतिक नीतियां धर्म आधारित हैं. आज तक वहां जितनी भी हत्याएं हुई हैं, उनके पीछे राजनीतिक कारण कम और धार्मिक कारण ज्यादा रहे हैं. धार्मिक कानून को मानने वाले मुल्कों में तरक्कीपसंद लोगों के लिए अपनी बात कह पाना बहुत मुश्किल होता है.
उनके प्रोग्रेसिव सोच को या तो दबा दिया जाता है या लोगों के बीच पहुंचने से पहले ही उनकी हत्या कर दी जाती है. ऐसी हत्याएं पाकिस्तान में ही नहीं होतीं. दुनिया के और भी कई मुल्क हैं, जहां प्रोग्रेसिव सोच के लोगों की हत्याएं होती रहती हैं.
पाकिस्तान के इतिहास पर एक नजर डालें, तो पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या से पहले जुल्फ़िकार अली भुट्टो, बेनजीर भुट्टो और लियाकत खान जैसे नेताओं की हत्या में कहीं न कहीं धार्मिक कट्टरता शामिल थी. हाल में पाकिस्तान के ईशनिंदा कानून की खिलाफ़त करने वाली पाकिस्तानी ईसाई महिला ओसया बीबी के पक्ष में बोलने के कारण पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या कर दी गयी. पाकिस्तान में ओसया बीबी को ईशनिंदा कानून के तहत मौत की सजा सुनायी जा चुकी है और वे जेल में हैं.
ऐसा कहना कि ईशनिंदा (पैगम्बर मुहम्मद या इसलाम के बारे में अपमानजनक टिप्पणी) करने पर इसलाम में मौत की सजा का फ़रमान दिया गया है, गलत है और यह कानून भी इसलाम के खिलाफ़ है.
इसलामी तारीख के मुताबिक ईशनिंदा कानून पहली बार अब्बासी काल में आया. 750 ई. में दुनिया के कई मुल्कों, जैसे उत्तरी अफ्रीका, दक्षिण यूरोप, सिंध और मध्य ऐशया, में अब्बासी वंश का कब्जा था. अब्बासियों के ही राज में इसलाम का स्वर्ण युग शुरू हुआ. अब्बासी खलीफ़ा ज्ञान को बहुत महत्व देते थे.
मुसलिम दुनिया बहुत तेजी से विश्व का बौद्धिक केंद्र बनने लगी और उस दौरान मुसलमान और मुसलिम शासक राजनीतिक उच्चता के शिखर पर थे. उनके सत्ता के इस गुरूर ने ईशनिंदा जैसे कानून को जन्म दिया. यह एक नयी कानूनी इजाद थी, जिसे कुर्आन और हदीस दोनों इनकार करते हैं.
मतलब यह कि कुर्आन या हदीस में कही गयी बात को तोड़-मरोड़ कर या गलत व्याख्या कर कोई नया कानून बनाने की इजाजत इसलाम में नहीं है. इसलिए पाकिस्तान को भी चाहिए कि इस कानून को फ़ौरन खत्म करे, क्योंकि यह वही ईशनिंदा कानून है जिसे अब्बासियों ने इजाद की थी.ईशनिंदा लोगों को मिली अभिव्यक्ति की आजादी का गलत इस्तेमाल है और इसके लिए कोई कानूनी सजा मुकर्रर नहीं है.
अगर कोई शख्स किसी को चोट पहुंचाता है या शारीरिक रूप से नुकसान पहुंचाता है, तो उस पर सजा का मामला बनता है, लेकिन वह भी मौत की सजा का नहीं. अगर कोई ईशनिंदा करता है, तो उस पर तो कोई कानूनी सजा का मामला ही नहीं बनता, क्योंकि वह उसके मानसिक सोच का मामला है. इस ऐतबार से हम किसी को ऐसा करने पर सजा कैसे दे सकते हैं? इस तरह का कानून इसलाम में कहीं नहीं है.
पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून जनरल जियाउल हक के शासनकाल में लागू किया गया था. हदीस के जमाने के बाद, यानी पैगम्बर मुहम्मद के बाद के जमाने में, अरब में कुछ ऐसे शासक हुए, जिन्होंने इसलामीकरण के नाम पर कुर्आन और हदीस की गलत व्याख्या की. उन्होंने मनमाने ढंग से तरह-तरह के कई कानून बनाये, जिन्हें ‘फ़ोकहा’ कहा गया.
आज इसको मानने वालों की पूरी दुनिया में एक लंबी फ़ेहरिस्त है, जिसके परिणामस्वरूप लोगों की हत्याएं होती रही हैं.इसलाम के मुताबिक अगर कोई पैगम्बर मुहम्मद साहब या इसलाम के बारे में अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करता है, तो यह उसकी नासमझी है. मुसलमान विद्वानों को चाहिए कि उस शख्स को समझाएं और इसलाम की अच्छी बातों को उसके जेहन में उतारने की कोशिश करें.
बजाय इसके कि उसकी मौत का फ़रमान जारी कर दें. पैगम्बर मुहम्मद के बारे में या इसलाम के बारे में कोई किसी भी तरह की टिप्पणी करता है, तो यह उसके निजी सोच का मामला है. इसके लिए उस पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. ऐसे घृणित काम के लिए उसे सजा या माफ़ी सिर्फ़ अल्लाह ही दे सकता है, इंसान नहीं.इस पूरे मसले के मद्देनजर इसलामी तारीख का एक वाकया बयान करना मुनासिब होगा.
पैगम्बर मुहम्मद जब रास्ते से गुजरते थे, तो उनके दुश्मन उनके और इसलाम के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करते थे. सहाबा किराम (मुहम्मद साहब के साथी) गुस्सा होकर कहते थे कि हुजूर, अगर आप इजाजत दें तो हम उनको सबक सिखाएं. लेकिन पैगम्बर मुहम्मद ने उन्हें मना करते हुए अपने सहाबी साबित अल अंसारी से कहा था कि उनके अंदर समझ की कमी है.
मैं अल्लाह से दुआ करता हूं कि अल्लाह उन्हें अच्छी हिदायत दे. पैगम्बर मुहम्मद ने उनके खिलाफ़ किसी भी तरह की सजा से इनकार कर दिया था. इसलाम हमेशा किसी मसले की जड़ तक जाकर कोई फ़ैसला देने की बात करता है. कुर्आन में आया है- ‘किसी भी मसले के पीछे के कारणों को ढूंढ़कर लोगों को समझाने की कोशिश करनी चाहिए. फ़ौरन उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए, जो अल्लाह के अलावा किसी और की प्रार्थना करते हैं..(6:108)’इसलाम सिर्फ़ हत्या के मामले में ही सजा की इजाजत देता है.
इसके अलावा किसी भी तरह के अपराध के लिए इसलाम में कहीं भी मौत या मौत जैसी सजा मुकर्रर नहीं है. अगर कहीं ऐसा होता है तो ऐसे मुल्क की सरकार को चाहिए कि पहले वो इसलाम को समझने की कोशिश करे, फ़िर कोई सजा का प्रावधान बनाये और वो सजा भी मौत की नहीं होनी चाहिए. इसलाम तो साफ़-साफ़ कहता है कि अगर किसी ने कोई अपराध किया है तो उसे सजा संवैधानिक कोर्ट से ही दी जानी चाहिए और वह भी जुर्म साबित हो जाने के बाद.
कोई भी आम नागरिक ऐसा नहीं कर सकता, जैसा कि सलमान तासीर की हत्या कर मुमताज कादरी ने किया.कुर्आन में अल्लाह ने अपने रसूल, पैगम्बर मुहम्मद को हुक्म देते हुए कहा है- ‘ऐ मुहम्मद! लोगों को आप दीन (इसलाम धर्म) के बारे में बताइये. आपका काम सिर्फ़ लोगों को बताना है, क्योंकि आप निगहबान (संरक्षक) नहीं हैं..(88:21:22)’ इससे यह साबित होता है कि ईशनिंदा जैसे जुर्म में भी किसी को मौत की सजा नहीं दी जा सकती.
इसलाम का दायरा बहुत बड़ा है. इसलाम सजा से पहले किसी शख्स को दीनी बातों के तहत समझाकर उसे दीन की तरफ़ आने की दावत देने की बात करता है, न कि फ़ौरन सजा की. लोगों के दिमाग में एक धारणा बन गयी है कि कुर्आन एक फ़रमान जारी करने वाली किताब है.
यह बहुत ही गलत धारणा है. कुर्आन कोई क्रिमिनल कोड (अपराध संहिता) नहीं है, बल्कि यह तो एक आस्था (राजी होने या करने) वाली किताब है. इसलाम के सारे तर्क और उपदेश स्थितिजन्य कारणों पर आधारित होते हैं, कि कोई मसला क्यों और कैसे हल किया जाना चाहिए.
(लेखक इसलामी विद्वान हैं और सेंटर फ़ॉर पीस एंड स्पीरिचुअलिटी इंटरनेशनल के संस्थापक हैं.)
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